पृष्ठ:अमर अभिलाषा.djvu/८८

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55 अमर अभिलापा तयनारायण ने श्री के मुस पर सहमा नेन गादकर कहा- "उसका फिर विवाह कर दें।" अव तो गृहिणी उठ खड़ी हुई, उसने कहा-"क्या कहा? ब्राह्मण की बेटी का पुनर्विवाह ? तुम्हारी धुद्धि तो नहीं मारी गई है ? वाह, अनी युक्ति बैठाई है !" "क्यों, वात ले हो-हर्न ही क्या है ? एकदम नाराज़ क्यों होती हो?" "चलो हटो, पायर पड़े ऐसी बातों पर ।" "कुछ वजह भी हो, या यों-ही?" "सात-सात जन्म हब जायेंगे । नर्क में भी नगह न निलेगी। ऐसी अनहोनी यात अाज तक संसार में हुई है ?" जयनारायण ने भी सिकोड़कर कहा-"तुम्हें सदर तो नहीं अपने घर की भी, और संसार की बात करती हो। इसमें हर्न ही क्या है ? और अनहोनी ही क्या है?" "बिरादरी ने नाक कट लायगी।" "कट नाय, मेरी नरो को सुख तो निलेगा!" "नरो को सुख वदा होता, तो एक ही व्याह में होता।" "अच्चा, अव दूसरा व्याह करके देखते हैं कि होता है या नहीं। नो उपाय हमारे दश का है-उससे रहते वह क्यों काट भोगे?" त्री ने विगहार कहा-"पान तुम्हें हो क्या रहा है, बो बार-बार ऐसी बातें करते हो? कहीं नशा तो नहीं खा भाये हो?"