57 अमर अमिलापा । इतना कहकर गृहिणी पीछे की ओर देखने लगी। उसकी बात को भूठ सावित करने के लिये तभी टपटप कई दूँद आँसू उसके नेत्रों में आगये थे। उसने द्वार की तरफ़ देखने का बहाना करके उन्हें छिपाना चाहा, पर जयनारायण ने उन्हें देखकर भी न देखा। उन्होंने धीर भाव से कहा-"जायो, खा-पीकर निपटो। दो बनने को है।" गृहिणी चारपाई के पैताने स्वामी के चरणों को गोद में लेकर बैठी। नयनारायण ने बार-बार उससे लाने को कहा, पर वह बैठी ही रही। धीरे-धीरे उसका मुँह भारी हो- थाया। मानो कोई भारी घाँधी-तूफान आने को हो। फिर तुरन्त ही उसको घाँखें भर आई। जयनारायण ने उसका हाय पकड़कर कहा-"यह क्या पागलपन है ? तुम तो अभी कहती थीं, कि मैं कभी आँसू नहीं गिराती, बड़ी कच्ची हो!" इतना कहकर वह जरा हँस दिये। पर जिसने वह हंसी देखी हो, वही उसकी भयङ्करता का पता लगा सकता है। गृहिणी पर उसका बुरा ही प्रभाव पड़ा। वह फूट-फूटकर रो उठी, और खूब रोई। शान्त होने पर अत्यन्त श्रवरुद्ध काठ से उसने कहा-"मैं रोऊँ. न, तो क्या करूँ ? मुझे मौत भी तो नहीं आती ! दो-दो बेटियों के भाग्य फूटे अलग, और अव मेरे फूटने बाकी है। दिन-भर उदासी, सोच-फ्रिक, खाना, न पीना। शरीर की यह दशा कर रक्खी है ! कब तक इस तरह चलेगा? इन अभागियों को तुम्हारा ही सहारा है। तुम्हीं जब शरीर को, शोक कर-करके मिट्टी कर
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