७६ अमर अमिलाषा इतना कहते-कहते रामचन्द्र बहुत उत्तेजित हो उठे थे। उन्होंने देखा-जयनारायरण थासे फाद-फाटकर मुंह पसारे उन- की और देख रहे हैं। उनके नेत्रों में भयदरता छा रही है। रामचन्द्र फिर कहने लगे-"हमारे घर में हम हिन्दुओं के घर में, नित्य एक न एक तिहवार थाया करता है। हमारी स्त्री और माता तक पैरों में महँदी लगाये, उबटन मले,अच्छे-अच्छे वर पहने, और हमारी पुत्री देख-देखकर वसा करे । उसे जन्म-भर इसी तरह रहना चाहिये। वह कभी अपने पति का दर्शन नहीं कर सकेगी ! वह फभी अपने प्यारे पुत्र का मुख-चुम्बन नही कर सकेगी ! उ ! चाण्यावस्था से वृद्धावस्या तक उसे उसी हीन अवस्था में रहना होगा! नित्य रोना, तिरस्कार, धमकी, अपमान सहना, साथ हो कामदेव के फटिन पाणों को सहकार युवावस्था ही ययों-सारा जीवन व्यतीत करना है। यह सब उसके भाग्य में लिखा है ? उसे इस तरह रहना क्यों पड़ता है ? इसलिये हो कि आप उसे इस तरह रहने पर मजबूर करते हैं- जबर्दस्ती करते हैं, अत्याचार करते हैं !" इतना कहते कहते रामचन्द्र प्रापे से बाहर होगये । कुछ हारकर उन्होंने सिर उठा- कर देखा, तो जयनारायण दोनों हाथों से मुंह पर फूट-फूटकर पालकों की तरह रो रहे थे। दुःख से मानों उनका कलेजा मुं। को भाने लगा था। उनको शोचनीय दशा में देखकर मी बाबू रामचन्द्र की 'उत्तेजना कम न हुई। उन्होंने उस कावर व्यक्ति की ओर
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