उपन्यास है, वदनात थादमजाव को !! -इतना कहकर रामचन्द्र चुप हो- गये। उनके नेत्रों से उद्वेग उपफा पड़ता था। जयनारायश फर- पुतली की तरह उनकी बातें सुन रहे थे । मानों उनका अपराध मृतिमान उनके सामने खड़ा कर दिया गया था। रामचन्द्र फिर कहने लगे-"विचार तो फीजिये-यापने ही अपनी पुत्री को पैदा किया, आपने ही टसे पाल-पोसकर क्या किया, वह सुकुमारी धाप ही के हृदय से प्यार से सगी रही। भाप ही ने उसकी बचपन में शादी करदी-इसलिये कि ऐसा र करने से कुछ लोग आपकी ओर उँगली उसते, ताना मारते । अतएव आपने अपनी पुत्री का भला न देखकर इस इवनी-सी यात के लिये उसे अयोग्य अवस्था में व्याह दिया। घटनाक्य वह कुछ दिनों में विधवा होगई । अब वह भच्छे-अच्छे वस्त्र नहीं पहन सकती, शादियों में शरीफ नहीं हो सकती, वहाँ और लियां खिलखिलाफर हंस रही हैं, नाच-रंग में आनन्द करती है, आपकी प्यारी पुत्री उसी घर के सड़े कोने में पड़ी सिसक सिसक कर रो रही है। वह स्वयं रोना नहीं चाहती, उसके ये और प्यारे पति के शोक में नहीं है, क्योंकि वह क्या पदार्थ है, यह तो उसे अभी ज्ञात ही नहीं है। उसके मन में रह-रहकर अन्य खड़कियों के साथ मिलकर खेलने की, दिल खोलकर हंसने की, चिड़ियों की तरह इधर-उधर फुदकने की इच्छा होती है, पर ऐसा करने से आप ही उसे रोकते हैं, कि लोग आप पर हसेंगे। श्राप ही उसे रुलाते हैं, और भाप ही उसे जन्म-भर स्लावेंगे।"
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