उपन्यास । करता, पर भाई-विरादरी और दूसरे विचार पाते ही शिथिल पड़ बाता था। कभी-कभी वह सोचता था, कि जब तक जिन्दा हूँ, तब तक तो बनेगा, पर मेरी आँखें बन्द होने पर इन प्रभागिनी कन्याओं का क्या होगा? यह फिसका मुंह तकती फिरंगी- किस-किस की गुलामी करती फिरेंगी ऐसी-ऐसी चिन्तामों से वह घुला नाताया!! जयनारायण के पड़ोस में एक याबू रामचन्द्र रहते थे। वह आर्य-समाज के एक साधारण सभ्य थे। पहले कहीं रेल्वे में ५०) २० देतन पाने थे। परं उसे छोड़फर उन्होंने श्रव कपड़े की दूकान कर ली है। वह बड़े शिष्ट, सज्जन और मिलनसार थे-लय- नारायण से इनकी और भी घनिष्टता थी । एक दिन जयनारायण बैठे-बैठे अपने दुर्भाग्य की चिन्ता कर रहे थे। इतने में रामचन्द्र ने बैठक में प्रवेश करते-करते कहा-"नमस्ते दीवाननी!" तयनारायण ने मुंह उठाकर देखा, और उठकर कहा- "माइये-याइये ।" "हाज़िर हुआ-फहकर यह पास ही के गये। थोड़ी देर में इधर-उधर की बात-चीत करते-करते रामचन्द्र ने कहा-"नारापणी फैसी है ?" "भव तो भाराम है ! कुछ खाँसी यानी है, कभी-कभी न्वर भी होनाना है, पर बहुत कम ।"-इतना कहने के बाद एक उण्डी साँस लेकर उन्होंने कहा-"निश्चय नानो माई, वह मरेगी नहीं-मरने का सुख उसके भाग्य में वदा होता, तो यह दिन ही क्यों देखती?" इतना कहकर उन्होंने दाँत निकालकर
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