७० अमर अभिलाषा "यह तो तुम्हारी करनी का फल है।" "आँखों देखे सौप किससे निकला जाता है। नारायणीकोनखे माता, तो करता क्या ? पहचानी भी नही पडसी । जब मैं पहुँचा, तो बुखार में बेसुध पड़ी थी, मुंह लाल हो रहा था। इसी दण में ६ दिन से पड़ी थी। किसी को उसकी सुध न थी; हारकर मैंने डॉक्टर बुलाया । ये देखकर वोले-"इसे दो दिन का असर होगवा है। दो दिन तक दवाई दी गई, तब होश में आई। बुखार भी हलका पहा । पर खाँसी चैन नहीं लेने देती है। बुखार हरदम बना रहता है । बिगर खराब होगया है। विस पर देखो, मार के मारे कमर नीली होई पड़ी है । उसे मरी-जीती को पूलनेवाला तो कोई था ही नहीं बोलो, न खाता, तो क्या करता?" यह कहते-कहते उन्होंने अपने आँसू रोके । इस बार हरदेई का बी-हदय भी तनिक विचलित हुमा, पर अपनी धुन में तनकर वह बोली- "अच्छी यात है-तुम उसे सरनोक्न घोटकर पिला देवा, इस श्रमागिनी के जीने में श्रव क्या सुख है ? अब इसका सुहाग ही फूट गया है, तो अब तो मावान उसकी मही संपवा लें।" हरनारायण की आँखे बलने लगीं। उन्होंने क्रोध से घर सी की ओर देखा, और कांपती भावान में बोले-'वो तुम्हें वैसी ही प्रभागिनी यमवा पड़े, तो तुम जहर खाकर मर जाना- मना! सुहास-फूटी दुनियाँ में रहती थोड़ा ही हैं, और न उनपर ,
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