६६ अमर अभिलापा "मेरी नींद तो तुम्हें खटक गई-पर तुम सनिक चार-बार घण्टे अकेले चै कर देखो-नींद आती है, या नहीं। ऐसी क्या कमाई करके लाये हो, कि धर थाने ये ने की फुरसत ही नहीं मिली ?" यह कहकर हरदेई ने बक्र दृष्टि से पति का तिर- स्कार किया। हरनारायण ने कपड़ा उतारते-उतारते कहा- "तुम्हारी कैसी धुरी पादत है ! जरा आदमी की सदियत देखकर नाराज़ हुआ फरो, वात-बात में मक-माफ अच्छी नहीं होती। नो, यह कोट झूटी पर सँग दो।" हरदेई ने कोट लेकर खूटी पर रखते-रखते कहा- "मेरी यात तुम्हें सुहाती होगी? सीधीशस कहूँ, उल्टी लगे।" हरनारायण ने कुछ नवाब नहीं दिया । वे चुपचाप कपड़े उतारकर चारपाई पर लेट गये। हरदेई भी कुछ बड़वाकर पंखा लेकर खड़ी होगई। हरनारायण ने कुछ पढे होकर कहा-"खदी क्यों हो? नामोन?" "मैं अच्छी तरह खड़ी हूँ....... "क्यों, ऐसी उदास क्ष्यों हो?" "कहाँ ? उदासी हो-मेरी जूतियों को मुमे परवाह फिसकी है ? मैं पया मोल सीधी भाई है, या कोई कुजात हूँ ?" "वाह-वा! तुम्हारा मिजान तो बिखरा ही जाता है। कहता कौन है, कि तुम मोल पाई हो?" $
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