उपन्यास ६३ ? 'असह्य समझता है, पाश्चर्य की यात है, कि उनको निरन्तर सहने का अभ्यास तो कर लेता है, पर मरने से फिर भी डरता है। बात बड़ी ही अद्भुत है पर सच्ची है। नारायणी को प्रयम तो मृत्यु का ज्ञान ही न था वह दुख से बचने को बहुत घट- पटाती थी। पर न-मालूम किसने उसे सिखा दिया, कि मृत्यु की गोद में अच्छी शान्ति मिल जाती है। यालिका उस शान्ति के लिये ललचा तो उठी थी, पर यह न समझ सकी, कि अन्ततः मृत्यु से भेंट होगी क्योंफर ! परन्तु जिस अतर्य-शक्ति ने उसे इस अवस्था में इतना ज्ञान कर दिया था, उसने यह भी समझा दिया, कि घटना-चक्र से वह स्वयं ही धीरे-धीरे उसी शान्तिदायिनी मृत्यु की ओर अग्रसर हो रही है जिस पर उसका जीवन थाप ही लटक रहा है। वही मृत्यु का पय है यह समझकर वह अद्भुत धीरल, भगम्य शान्ति और थाश्चर्यजनक सहनशीलता से उस भयानक पय पर बदी चली जा रही थी। बालक पति के मरने के वाद वालिका विधवा का जीवन ऐसा ही अद्भुत, धीमत्स और भयानक हो रहा था !! पाठक ! हमारी यह कहानी एक-दम कहानी नहीं है। 'विश्वास रखिये, कि दया-धाम हिन्दू-धर्म के पवित्र पर्दे में छिपी मसंख्य वालिकायें-ऐसी ही कठिन और उग्र तपस्या कर रही है। विस पर भी हम उन्हें भवना कहकर अपमानित करने में सज्जित नहीं होते ! अपार शारीरिक काट के मर्मच्चेदी तीर, घोर मानसिक ताप की भंयकर ज्वाला, दुस्सह अनादर मौर 1 और
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