अमर अमिलापा है, पर कोई उत्तर उनको नहीं दिया गया। बालिका के सास- ससुर मानो उनको शव अपनासम्बन्धी ही नहीं समझते। उनकी धारणा है, कि हमारे पुत्र के मरने में सब से अधिक अपराध इस कुलच्छिनी बहू का ही है । व्याह में जो खर्च हुथा था, उसे याद करके रमाकान्त और भी आग-बबूला होनाता है। सारे परिवार ने मिलकर यही गन ली है, कि इस खसम-खानी सद से ही सब बातों का बदला लिया जाय । इसी के अनुसार काम भी होता था । वालिका अपनी जननी की सुखमयी गोद से अलग होकर, थपने पिता के दुलार से वञ्चित होकर, साथ ही पति के सौभाग्य को खोकर सव की ही कोपभाजन हुई है, और इसी नन्ही अवस्था में असह्य यातनाएँ शरीर पर झेल रही है। पहले वह मिडकी या गाली सुनकर रो उठती थी, पर अव चुपचाप सुन लेती है । उसे नित्य सब से प्रथम ४ बजे उठना पड़ता है, और यारह बजे सोना मिलता है। सर्दी, गर्मी, वर्षा कमी मी उसका परित्राण नहीं है। पहले उसको इसमें कष्ट होता था, सारा शरीर थककर चूर-चूर होजाता था, पर अय वह पान नहीं है उसे उसका अभ्यास होगया है। रस्सी और जलती हुई लकड़ियों की मार से प्रथम उसे बड़ा दर्द हुमा करता था, और वह घण्टों रोया करती थी, पर अब दर्द नहीं होता है। शरीर वैसा ही बन गया है, धौर आँसू भी कम निकलते हैं। क्या बाने हैं भी या नहीं ? असन बात यह है, कि मनुष्य का मरना हँसी-खेल नहीं है। जिन दुखों को मनुष्य मृत्यु से बढ़कर
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