अमर अभिलापा नाप न ले सकी, इसी से ऐसा हुधा । आप मेरी मजदूरी से इसके दाम काट ले, और कृपाकर अपनी कमीज़ दे जायें, जिसके नाप से और कमीजें सी दी जाय।" "दाम काटने की बात तो पीछे देखी नायगी। पर कमीज़ मैं तुम्हें दे जाऊँ, तो क्या नंगा घर जाउँ ?" युवक हँस पड़ा। वालिका ने मधुर स्वर में कहा-"कल कष्ट करके आप एक और कमीज़ दे जाइयेगा।" "श्रव कल आना वो आफत है। नहीं तुम नाप ही न ले। लो, जब मैं ही यहाँ खड़ा हूँ, तव कमीज़ क्या करेगी?" वालिका भयभीत-सी होगई । राम-राम-क्या वह उस युवा पुरुष के शरीर पर नाप ले ! क्या इसमें स्वार्थ होना सम्भव नहीं ? और-और-नहीं-नहीं, ऐसा तो वह कर ही न सकेगी। बालिका को पसोपेश में पढ़ते देख, युवक ने कहा--"नहीं तो जाने दो, कपड़ा वापस दे दो, कमीजें श्रन्यन सिल नावेंगी।" बालिका ने कातर नेत्रों से युवक को देखा-वह कुछ घोली नहीं। होठ काँपे, मगर स्वर न निकला। युवक के शरीर में एक विद्युत्-प्रवाह उत्पन्न हो रहा था । उसने कहा-"सुशीला, तुम सिलाई का काम करती हो, परन्तु बिना नाप-चोल किये थाह काम चलेगा कैसे ?" सुशीला ने कहा-"पापको मैंने कह तो दिया ही है, मैं दुखिया हूँ, और बहुत गरीव हूँ, वे दो रुपये तो रखे हैं, पर जो कमीज सराव होगई है, उसके बदले दाम देने को मेरे पास
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