उपन्यास के विचारों में गड़बड़ी पड गई: वह कुछ निश्चय ही न कर सका। भोजन का समय यागया-मेस का नौकर कई बार बुला गया, पर प्रकाशचन्द्र उस दिन भोजन को न गये । वे जितना ही उस बालिका को भुलाना चाहते थे, उतना ही वह उसके सम्मुख पाती थी, मानो इतनी ही देर में उसकी स्मृति उनके हृदय-पटल पर अमिट-सी होगई है। उन्होंने पुस्तक खोलकर पढ़ना चाहा, और भी किसी काम में मन लगाना चाहा, पर किसी काम में मन न लगा। वे ज्यों- ज्यों बालिका के पास सायंकाल को न जाने की सोचते, त्यों-त्यों उन्हें भासता कि यह असम्भव है। चे कुछ भी स्थिर न करके चुपचाप लम्बी तानकर पड़ रहे । सन्न्या होने लगी, और युवक अभी यह स्थिर ही न कर सके थे, कि उन्हें वहाँ नाना है, या नहीं; परन्तु वे उठकर हाथ- मुँह घोकर कपड़े पहनने लगे। उनके मन ने पूछा-"कहाँ चले ?" “यों ही जरा घूमने !" "वहाँ तो न नायोगे ?" "नहीं नहीं।" मन मानो उठाकर हँस पड़ा। उसने कान के पर्दे के भीतर धुसकर कह दिया-"हर्ज क्या है ? ज़रा देख ही भाना।" "नहीं।" "कमीज़ सिली, या नहीं ?"
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