उपन्यास ३७ गृहिणी बोली नहीं। यही देर तक वह मौन-कोप में भरी बैठी रही। सील-भरी धरती पर बालिका बैठी, कापती हुई, गृहिणी के मुख से शब्द निकलने की प्रतीक्षा करने लगी। दुवारा उसे कुछ कहने का साहस न हुआ। अन्त में गृहिणी भी योली। उसने उसी वस्त्र की पोटली उसके हाथ में देकर कहा-"जा, जरा राजा साहब की कोठी तक चली जा, और यह कपड़ा रानीनी को पसन्द पारा ला। पसन्द आजाय, चोपड़ा छोड़ पाना। और यह पर्ची ले, येरुपये लेतो पाना । ना. पसन्द पाने पर, उसमें जो कोई कसर होगी, पूरी करनी पड़ेगी।" लाचार लड़की चली । पर्ची में पढ़कर देखा-चाईस रूपये? हे भगवान् ! दो रुपये दस आने के बाईस रुपये !! बाईस रुपये की मजूरी के दो रुपये दस थाने !!! पर उसे किराये की सव से बड़ी चिन्ता थी। वह बढ़ी चली जा रही थी। नम्बर पूलती हुई वह कोठी में पहुँची, और राना साहब के सामने पेश हुई। राना साहव की उम्र लगभग चालीस वर्ष की थी। रङ्ग साँवला था। आँखों में लम्पटवा कूट-कूटकर भरी थी। दो दिन की भूखी, दुःख-दर्द से व्यथित, शीत से टिठुरी हुई बालिका के मुरझाये हुये पीले चेहरे को देख, राना साहिब घूरने और मुस्कराने लगे। गरीब लड़की ने घबराई आवाज से कहा-"सर- कार, कपड़ा तैयार है।" कहकर धीरे से उसने मेज पर पोटली रखदी, और भागे बदकर पर्ची राना साहब के हाथ में दी।
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