अमर अभिलाषा चालिका ने कुछ बोलना चाहा, पर उसकी जीम वालू से चिपक गई। उसने धरती पर गिरकर बुढ़िया के पैर पकड़ लिये । अन्त में उसने टूटते स्वर से कहा-"चाची! दो दिन से अन्न का दाना मुँह में नहीं गया, पर पहले किराया दूंगी; पीछे बल. पीऊँगी। तुम शाम तक दया करो।" बुढ़िया का हृदय पिघला । पर क्षण भर बाद उसने कहा- "शाम को नहीं, अभी दे। कहीं से दे। उठ। मैं अभी लूँगी। अभी वेरा गूबड़-बोरिया फेंकती हूँ।" वालिका भयभीत होकर, उठ खड़ी हुई। उसने कहा- "चाची ! मैं अमी नाती हूँ।" इतना कहकर वेत की तरह कॉपती हुई लड़की फिर घर से बाहर निकली । उसके हृदय और आँखों में बैंधेरा था। उसे कुछ सूमता ही न था। वह वीर की तरह घायल करने- वाली हवा से शरीर को घायल करती हुई, फिर उसी द्वार पर था-खड़ी हुई। वह यही देर तक वहीं खड़ी रही, और अन्त में भीतर घुसी। मालिकिन अभी पलँग पर बैठी थी। लड़की को देखते-ही, उसने भाग होकर कहा-"भव कैसे प्राई ?" पालिका चुप रही। फिर वह धीरे से धरती पर बैठ गई, और कातर-कण्ठ से बोली-"मुझे चाची ने निकाल दिया। दो महीने से किराया ही न पटा । दया करके कुछ दे-दो। मैं भूखी तो और कल तक रह सकती हूँ, पर चाची को क्या कहूँ ?"
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