उपन्यास ३२५ पाठक ! एक श्य हम छिपाये डालते हैं। हम में उसके वर्णन करने की शक्ति नहीं है। उस दग्ध-हृदय पिता की विदा के समय पुत्री से भेंट विन्कुन अलौकिक थी। उस समय दोनों पन में कोई ऐसा न था, जो रो न रहा हो। पर यह रोना जैसे सुख का था--उसके लिये सब तरसते हैं। इन आँसुओं के साथ वर्षों के कडुवे दुःख धुल रहे थे। छप्पनयाँ परिच्छेद मणिकर्णिका घाट पर एक शुन-वसना महिला एक पञ्च- वर्षीय बालक की उँगली पकड़े गीली धोती निचोड़कर, हाथ में लिये धीर-धीरे लीदियों की ओर भा रही थी। उसका मुख गम्भीरता, तेन श्रीर तप के प्रभाव से देदीप्यमान् था। वह न इधर देखती थी, न उधर । बच्चा कुछ बोल रहा था, और वह उसकी बातों का धीरे-धीरे उत्तर देती जा रही थी। सोदी पर एक भिखारिन अर्द्ध-नग्न और विक्षिप्त अवस्था में पड़ी भीख मांग रही थी, उसके समस्त भङ्गों में कुष्ट फूट पड़ा था, आँखें और होठ गल गये थे, नाक बैठ गई थी। उसका स्वर नाक से निकलता था। रोग और दुर्वलता के कारण वह बैठ भी न सकती थी। उसके सन्मुख एक कपड़ा पड़ा था, उस पर आती-जाती नियाँ कुछ भुने हुए अनान के दाने डाल जाती थीं।
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