३२२ अमर प्रमिलाषा . वहीं लुढ़क गये, कोई भीत के सहारे पीनक लेने लगे, कोई तम्बाकू मलने लगे, कोई निठल्ले माला ही ले बैठे। ग़रज, छन्नू मिस्तर के घर मजे की बहन होगई । घण्टे-पर-घण्टे बीत गये, पर कोई न आया । क्या मोनन हो चुका ? क्या प्राह्मण न बुलाये गये ? कोई-कोई, जो सो गये थे, भाँख खोलकर पूछ लेते थे-"कोई आया तो नहीं ?" और 'नहीं' का उत्तर पाकर फिर सो रहते । अन्त में उनकी वेचैनी बढ़ी। धैर्य सीमा को पार कर गया। उन्होंने देखा-बारात बाना वनाती भोजन को गयी। ब्राह्मण बैठे ही रहे। तभी एक और घटना घटी-पतिया नाइन हँसती हुई उधर था निकली। प्राहाणों की मनलिस को सुस्ती से बैठी देखकर आँख मटकाकर हाथ हिलाकर कहा-"ऐ दादा ! तुम यहाँ क्यों बैठे हो ? नायो न, जनचासे में रुपया दिखर रहा है। यह लो, मैं तो चिट्टा वना लाई।" यह कहकर उसने टन-से शशि-वर्ण चतुमुन को बना दिया। श्रव भोंदू मिस्सर से न रहा गया। वे अपना सोटा उठाकर बोले-"यह लो भाई ! हमारे रामनी तो चले।" रिस्सू बोले-"और हम क्या यहाँ ऐसी-तैसी करावगे ? हम भी चले।" तिचाहीती चोले-"चलो, फिर हम भी चलें।" पत्र तो एफ-के-बाद-एक जपका । परिहतनी कहने लगे-- "भाई, बिना बुलाये नाना क्या ठीक है ?"
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