पृष्ठ:अमर अभिलाषा.djvu/३२८

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३२० अमर अभिलापा विवाहों से सूने घर लौट गये हैं। हर बार एक-से-एक बढ़कर बीती थी । सो अब की बार मामला चौपट हो होगा । बड़ी देर फालतू वातों में बीतने पर एक ने कहा-"लो भाई, जो निश्चय करना है, जल्दी करो । भोलन का तो समय होगया है, धव कोई-न-कोई बुलाने पाता ही होगा। इससे पहले ही अपना कर्तव्य तय होनाना चाहिये।" एक उनमें कुछ पढ़-पत्थर थे। वे इटक-हटककर कुछ अक्षर उखाड़ लिया करते थे । संकल्प समूचा याद था, और वनव-वे- वक्त सत्यनारायण की कया भी कह लिया करते थे। सब ने उन्हीं को घेरा । सब बोले-"अब और कौन बोले, परिडतनी है ही, जो ये करे सो होय।" पण्डितनी एकदम गम्भीरता की कीचड़ में लतपत होगये-मानों कोई घर का मर गया हो। इस तरह धीरे-धीरे वोले-"शास्तर की जो है सो, श्राक्षा ऐशी है, इस पापी के भोजन नहीं करनी चाहिए जो है सो।" सब चुपचाप सुनते रहे । परिडतनी फिर बोले- "इसमें हम जो हैं, सो अपना श्वार्थ नहीं देखते, मर्यादा की बात है।" कुछ देर पीछे एक महाराज बोले,-इनके दो दाँत मागे को निकल गये थे, उनमें से हवा निकल जाती थी। थाप कहने लगे-"पर मुस्कत तो ये है, जो कोई उधर से बुलाने भाया पएढज्जी, तो हम जो हैं सो, नहीं जायेंगे।" महाराज ने कहा-"हाँ, इस बात पर सब सोचतो! ऐशा न हो, सब चले जायें, और हम रह नायँ ।"