उपन्यास , में उसका एक मात्र धर्म भी गया! दूर-दूर से सुना करती थी, फि लटरियों के दूसरे व्याह होने लगे हैं। पर उस पुराने मिजाज की खी की समझ में किसी तरह उसकी उपयोगिया न वैठती थी। कितनी बार जयनारायण ने सिर दे मारा, नदाई-मगड़े किये, पर सब व्यर्थ । अन्त में उन्हें भान यह भी देखना हुधा । जिस घोर पाप से दूर रहने के लिये, पुनर्वियाह से बचने के लिये, इतनी बदनामी का टोकरा सिर पर रखा, वहीं अन्त में खुल्लम- सुल्ला हँसी-खुशी उसका पाप ही कर रहा है। ऐसे दुःख में, ऐसी चिन्ता की धांधी में, यह बोर अरुचिकर प्रसा, जिसका अभ्यास नहीं, रुचि नहीं, श्रद्धा नहीं, उसे ऐसा प्रतीत हुआ, जैसे किसी हिन्दू के मुख में जबर्दस्ती गो-मांस हँस दिया हो। उसने भुलाकर दिना विचारे-ही उसी मस्तिष्क की उत्तेजना ने हताश होकर यहीं पत्थर पर सिर दे मारा। मामले में सार तो रहा ही नहीं था, यह धक्का वह सह नहीं सकी। प्रभागिनी वृद्धा अब अपनी दुलारी का सुख-स्वर्ग देखने जीवित न रही। वह उसके अगले ही दिन इस लोक से प्रस्थान कर गई। पचपनवाँ परिच्छेद जहाँ इतना हुआ था, यह और भी सही। सब-कुछ नहीं सहा या, यह भी चुपराप सह लिया गया ! नव एक बार हना.
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