३१६ अमर अभिलाषा जैसे जाति-च्युत गरीब की विधवा लडकी लेगा? मेरी नरकी के भाग्य में-ही राज-रानी वनना कहाँ है ? ऐसी-ऐसी तो उसकी -सैफडों दासियाँ होंगी।" रामचन्द्र ने माँखों में आंसू भरकर कहा-"दीवानजी ! असन में तुम रत्न के परखी नहीं हो । नारायणी को अभी तुम नहीं जानते, पर मैं जानता हूँ। तुम स्वीकार करोगे, तो वे सर- 'आँखों पर स्वीकार करेंगे।" जयनारायण ने कुछ न कहकर रुपया निकालकर रामचन्द्र के हाथ पर धर दिया, और उनके पैर छूकर कहा-"तुम मेरे माई हो, पान से नारायण तुम्हारी हुई ।" रामचन्द्र ने रुपया सिर से लगाकर कहा-"मुझे पान बढा आनन्द हुआ है । विवाह इसी सप्ताह में होगा।" इसके बाद वे उठकर चल दिये। जयनारायण कठिनता से प्रान्तरिक मानन्द से मुस्कराफर 'पीछे फिरकर स्त्री की तरफ देख पाये थे, कि वह दुहत्तड़ मारकर पत्थर पर गिर पड़ी। सिर फट गया, और वेहोश होगई । जय- नारायण की खुशी का फूर होगई, वे उठकर यत्न करने लगे। कुछ एफ सिर ही की चोट होती, तो कदाचित् आराम हो नाता । पर वेचारी गृहिणी को तो असह्य, मानसिक और शारी- रिक चिन्तामों ने खा-डाला था। कुछ ठिकाना है !एक सद्गृहस्य की स्त्री ने अचानक अपनी भवोध कन्याओं का वैधन्य, लान्छना, तिरस्कार, वदनामी, त्याग और जाने क्या-क्या न सहा ! अन्त .
पृष्ठ:अमर अभिलाषा.djvu/३२४
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।