३१४ अमर अभिलाषा । नारायण बेटे के साथ, विवाह बन्द किये घर में पड़े थे। चौधरी- जी,भाये, और लौट गये । पन्न पाये, और चले गये । जो श्राया, चला गया; मुलाकात किसी से नहीं हुई। 'तबीयत अच्छी नहीं है, सो रहे हैं। बस, यही एक उत्तर था। लोग तरह-तरह के सवाल फरने के इरादे से, नीचा दिताने, मलामत देने, जन्म में थूकने, हंसी उड़ाने,नारज जो निस योग्य था, करने पाता था, पर यहाँ तो मामला-ही दूसरा था-सव के लिये द्वार बन्द था। तीन बज गये। दोपहर ढल गया, पर नयनारायण के पट न खुले । अव रामचन्द्र वाबू ने आकर द्वार खटखटाया। सीतर से विना परिचय पूछे-ही कहा गया- "इस वक्त सोते हैं, जायो !" रामचन्द्र ने अपना परिचय देकर द्वार खुलवाया। उन्होंने देखा -जयनारायण को अब पहचानना कठिन है, मानों कब से मुर्दा उखाड़ लिया गया हो। उन्होंने दुखी स्वर में कहा-"अब तो यह भी होगया वावूमी ! आगे क्या होगा ?" रामचन्द्र ने उन्हें दिलासा देते हुए कहा-"जो हुधा, सो हुआ-'बीती ताहि बिसारिये, धागे की सुधि बेहु ।' उठो, काम- धन्धे से लगो, यह सब संसार के करिश्मे है। मैं जब आया था, तमी यदि श्राप मेरी बात पर ध्यान देते, तो यह सब क्यों होता?" जयनारायण बहुत रो चुके थे। अब उनकी आँखों में आंसू थे-ही नहीं । वे गढ़े में धसी हुई आँखों को उनके चेहरे पर गड़ा- कर, एकटक देखने लगे। रामचन्द्र ने हाथ जोड़कर कहा-
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