३१२ अमर अभिलाषा dia शरीर और आत्मा दोनों से तुमने मुझे खरीद लिया-हर लिया। तुम मनुष्य नहीं, देवता हो!" प्रकाश के नेत्रों में जल, और होगे में हास्य था। उन्होंने एक घुसा श्यामाबाबू की पीठ पर जमाकर कहा-"तुझे बात करने की तमीज़ ही नहीं आवेगी, चाहे लाख दिप्ती बन जाय । श्यामावाबू मित्र का हाथ पकड़े खड़े रहे। उन्होंने कहा- "प्रकाश, मैं तेरे हृदय के शीशे को पार कर गया हूँ, वहाँ लो चीज़ मुझे दीख रही है, उसी को मुमसे छिपाते हो।" प्रकाश बोले नहीं। वे मन का टहग दवा रहे थे। श्यामावाबू ने फिर कहा-"प्रकाश, सुशीला तुम्हें पाकर कृतार्थ होती, पर तुमने श्रादर्श के नाम पर बलिदान दिया।" प्रकाश अब खुले। उन्होंने कहा-"श्यामा, क्या यह बुरा किया ? यह जैसा सुन्दर हुआ, वैसा ही क्या यह भी होता? तुम क्या समझते हो, सुशीला सुखी न होगी ? मैं प्राण देकर भी उसे सुखी करूंगा!" "पर मैंने थोड़े ही काल में जब वह मेरे घर में थी- समझ लिया था, कि वह तुम से कुछ और भी पाशा रखती थी।" "न्यामा, अब इस बात को नहीं छोड़ दो। देखो, उसे तुम सदा क्षमा करना।" "प्रकाश, मैं उसकी पूजा करूंगा। मैं उसका लौकिक पति
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