- ३१० अमर अभिलाषा यह देखना कौन न पाहता था? २.० से उपर योरोपियन स्त्री- पुरुष बैठे थे। स्वामी सर्वदानन्दनी महाराज एक श्रासन पर और कर्मवीर महारमा देशरान दूसरे आसन पर पुरोहित बने बैठे थे। एक तरफ ब्रह्मचारियों का मण्डल पीले वनों में बैठा था। सामने संन्यासियों का दल गेरुआ रस में धारण किये उपस्थित था । उनके पीछे नगर के गण्य-मान्य पुरुष थे । महि- लाओं का स्थान दक्षिण दिशा में था। ठीक ५ बजे मंगल कार्य प्रारम्भ हुना। वर-वधु ने विवाह मण्डप में प्रवेश किया । वधु के मुख पर घूघट न था । वह फूलों की लतिका के समान शोभा- यमान, श्रोस से स्नान की हुई अधखिली कली के समान, चन्द्रमा की चाँदनी के समान स्निग्ध, विनय और लज्जा से अधोमुखी धीरे-धीरे वेदी की ओर बढ़ रही थी। उसके पीछे कुन स्त्रियाँ मंगलाचरण करती आ रही थीं। दूसरी ओर सिंह-शिशु के समान उज्ज्वल परिधान धारण किये, पुप्प-मालाभों से सुशोभित वर महा- शय परिजनों और मित्रों से घिरे हुये मण्डप की ओर अग्रसर ही रहे थे। दोनों के पासन पर बैठते ही स्वस्ति-धाचन का गम्भीर नाद प्रारम्भ हुआ। ब्रह्मचारी और विद्वन्मण्डल गम्भीर पनि से वेद- पाठ करने लगे। वर-वधू नीची दृष्टि किये निमग्न बैठे थे। पाठक, क्या वर-वधु का परिचय देने की प्रायश्यकता है? बंधू श्रीमती सौभाग्यवती सुशीला देवी, और वर श्रीयुत बान् स्यामनाथ एम० ए० एन०एल० वी०, माई० सी० एस० थे। बर-वधू पर पुष-वर्षा हो रही थी। वेद-पाठ समाप्त होते ही - 1
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