उपन्यास ३०९ एक स्थान पर दुलहिन का निर Pथा जा रहा था। उसकी माँग में मोतिया और चमेली के फूलों को गया तारहा था। हायों और पैरों पर मेंहदी का चित्रकारी की जा रही थी। दुलहिन यार-बार इन तमाम बातों से अपने को यचाना चाहती थी, पर उसका झुटकारा न था। युवती मण्डल उन्ने ताने-तिरनों ओर हसी-मजाक से तंग कर रहा था। दुलहिन का रूप दिव्य ज्योति से जगमगा रहा था। रायबहादुर साहेब कुछ तण खड़े-सई, यह सब खेल देखते रहे। इसके बाद वे एक साप हंस पड़े। दुलहिन उन्हें देखकर एकदम लता गई, और स्त्रियों के मुरमुट में उसने सिर दिपा लिया। इसके बाद वे गृहिली निकट पाकर बोले-"तुन्हें तो किसी वस्तु की यावश्यकता नहीं है?" गृहिणी ने कहा-"किसी को भी नहीं । मगर यह लड़की तंग करती हैं। गहनों का बक्स माया रखा है, न उन्हें पहनती है, न ससुराल के वस्त्रों को पहनती है, ऐमी निटी लड़की तो देखी नहीं।" रायबहादुर साहेब हंसकर योले-"इस मामले में मैं तुम्हारी कुछ मदद न कर सकूँगा।" इतना कहकर वे चल दिये। शहर में विवाह की धूम थी । बारात इस जोरों पर चदी, कि निसका शोर मच गया। विवाह-वेदी पर मनुप्यों के सिरों का समुद्र या। राययहादुर साहेप की पुत्री का विधवा-विवाह है,
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