उपन्यास ३१ "इस सर्दी में विना गर्म कपड़ा पहने कहाँ निकली थी इतनी -सबेरे इस दुप्य के पास क्यों भाई थी ?" पालिका ने लज्जा और संकोच-भरे नेत्रों से युवती की ओर देखा । मन का दुख और निराशा छिपाकर बोली-"कुछ काम था" कहकर वह आगे बढ़ी। युवती ने रोककर कहा-"मैं इसी घर में रहती हूँ-पाभो, जरा भीतर पैठो। पाग चल रही है वाप लो। तुम्हारे होठ नीले होरहे है।" वालिका क्षण-भर रुककर उसके पीछे चल दी देखा- कमरे में स्य सजावट है । बदिया तस्वीरें और पर्दे लगे हैं। पलंग "विधा है, उस पर गद्दा और मका-फफ सफ़ेद चादर विधी है। जमीन में दरी का फर्श है। बालिका ने खदे-ही-सदे कमरे की 'सुख-सामग्री को ललचाई नज़र से देखा, एक ठण्डी साँस ली, "और फिर वह भाग के पास जाखड़ी हुई । गृह-स्वामिनी युवती ने प्रेम से उसका हाथ पकड़कर फहा--"मैं भी तुम्हारी ही तरह दुखिया और अकेली हूँ।" "परन्तु देखती हूँ, तुम पढ़े सुख से हो।" "कुछ दिन से एक सज्जन की कृपा से यह सुख नसीब हुए हैं। पहले मैं बड़े कष्ट उना चुकी हूँ। पर तुम तो यही ही दुखिया मालूम होती हो । फैसा सुन्दर तुम्हारा रूप है!. कैसी आँखें और रस-भरे होठ हैं! पर यह सब सूख गये हैं। स्या तुम भूखी हो" बालिका दो दिकसे भूखी थी।पानी को छोड़, अन उसके मुख
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