उपन्याम और कुछ काम नहीं कर सकती ?" "मैं मसर कमाती थी, पर अब मुझे कोई धेले को नहीं पूजता।" मैतिन्ट्रट ने मन की पृणा रोककर कहा-"तुम कोई मज- दूरी फर मफ्ती हो?" "मजदूरी की अमी कही। मेरी उँगलियाँ ही गल गई है, मुझसे मजदूरी हो सकती है ?" "तुम अपाहिज-घर में दाखिल हो सकती हो?" "कुत्तों की भाँति सदा-गला अन्न खाने को ? ऐसी मेरी भादत नहीं। दो रुपये रोज तो मेरा शराय का खर्च है जनाब ! एक समय था, जब माप जैसे मेरे तलवे चाटा करते थे, पर भय सो बात ही यदल गया!" श्यामा वायू ने विरक्त होकर फहा-"तुम्हें और कुछ अपने बचाव में कहना है ?" "कुछ नहीं।" "मैं तुम्हें दो घर्ष सन्त कद की सज़ा देता है।" "अच्छी यात है। पर यह लिख देना, कि मुझे अस्पताल में रख दिया नाय । यहाँ करा खाना अच्छा मिल जाता है, और काम भी कुछ नहीं करना पड़ता...." श्यामा बाबू ने पुलिस को उसके हटाने का संकेत किमा, और दूसरी मिसल उठाई। वे सोच रहे थे-हाय ! स्त्री-जाति का यहाँ तक पतन हो .
पृष्ठ:अमर अभिलाषा.djvu/३०९
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।