पृष्ठ:अमर अभिलाषा.djvu/३०४

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२९८ अमर अभिलाषा. "मैं हूँ भगवती।" उसने भीतर बुसते-घूमते कहा। हरगोविन्द ने अकचकाकर कहा-"ए भगवती?" भगवती को और कुछ कहना न पड़ा। घर के प्रकाश में वह उसका पीना, सूखा और भयंकर मुंह, विक्षरे, मैले वाल और मलिन वेश देखकर स्तम्भित रह गया। भगवती चुपचाप खड़ी उसे ताकती रही। हरगोविन्द ने जरा भयभीत स्वर में कहा-"आखिर इस वेश का मतलब क्या है ? और इस समय कहाँ से प्रारही हो?" भगवती का कराठ, तालू, जीभ सब सूख रहे थे। कठिनता से उन्हें तर करके संक्षेप से कहा-"काशी से।" अव और भी अकचकाकर हरगोविन्द ने पूछा-"काशी से ? सीधी काशी से हरगोविन्द और कुछ न पूछ सका । वह चुपचाप खड़ा, मग- वती का मुँह ताकता रहा। अब भगवती का जी कुछ ठिकाने आगया था। उसने कहा- "हाँ, मैं काशी से ही आई हूँ, और तुम्हारे लिये आई हूँ।प्रायो, भव हम लोग इस निर्दयी दुनियाँ से कहीं अलग चलकर रहेंगे।" इतना कहकर वह उस युवक का हाथ पकड़ने को लपकी। परन्तु जैसे कोई भूत के छूने से डरता है, उसी प्रकार पीछे हट- कर हरगोविन्द ने कहा--"जरा ठहरो तो, तुम अपना मतलब साफ-साफ तो वयान करो।"