पृष्ठ:अमर अभिलाषा.djvu/३०३

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उपन्यास । 1 हरनारायण कुछ देर तक उसकी और अनुनय की दृष्टि से देखते रहे । उन्होंने उसे बहुत-कुछ समझाया, पर उसने एक न सुनी। वह उस अन्धकार में अपने को छिपाती हुई, विना प्रतीक्षा किये हरगोविन्द के घर की ओर चन खड़ी हुई। एक बार तो हरनारायण ने लपककर वहन को रोकना चाहा, पर ऐसा न कर सके। वे उस अनाय, निराश्रय, दलित अयला की दशा देखकर वहाँ बैठ, फूट-फूटकर रोने लगे। नव रोने से कुछ नी हलका हुआ, वो धीरे-धीरे घर को चले। मानों कोई जन्म-भर की कमाई लुटाकर चला हो। इस समय अँधेरा खूब होरहा था। गाँव का मार्ग निर्लन था। घर में भी अन्धकार और सन्नाटा था। हरनारायण घर में घुस, चुपचाप अपनी कोठरी में पड़ रहे । धान उन्हें प्रतीत हुआ, कि भगवतो निरपराध है, और वे स्वयं कितने अपराधी है। इक्यावनवाँ परिच्छेद हरगोविन्द इधर-उधर भटककर घर में श्रा, और खा-पीकर लेटे ही थे, कि उन्हें द्वार की खटखटाहट मालूम हुई। उन्होंने पुकारफर पूछा- कौन ?" उत्तर न मिला। कुछ उहरफर फिर खटका हुआ। अब वे द्वार खोलने चले । देखा-श्वेत वस्त्र में सर्वाङ्ग दाँपे कोई खड़ा है। उन्होंने कुछ भीत स्वर में पूछा- कौन है ?"