२९६ अमर अभिलाषा कहारी मंगल-फलमा लिये घर पर खड़ी थी, माँ धारती सनाये खड़ी स्त्री-मण्डल से कह रही थी-'मेरी भन्गो ससुगल से आती है, न जाने कितनी हार गई होगी? मेरी बिटिया के दिन पराये घर जाने कैसे कटे हॉग ?' उस समय मुस्कराते हुए, हमा- घम पैर बनाते हुए इपी भगवती ने घर में प्रवेश किया था। किसी ने पुचकारा था, किसी ने गोद में लिया था, किसी ने सिर पर हाय फेरा था, फिसी ने वस्त्र, किसी ने भाभूपण हाथ में ले- लेकर टटोलकर देखा और सराहा था, किसी ने मंगल गाये थे। माता दौड़कर नल-पान को मिलई ले आई थी, मामी नन्दी- बल्दी पूड़ियाँ उतार रही थी, नारायणी झपटकर पीहा ले भाई थी, नाइन पंखा लेकर खड़ी होगई थी। पाठक ! ऐसे ही चोचले हुए थे। वे दिन यान भी भगवती भूली नहीं है । पर पान तो दिन ही और है। वे दिन और थे- जिन दिन देखे वे कुमुम, गई मुवील बहार । अब अलि ! रहीगुलाब में अपत कटीली हार ।। अस्तु, अव भगवती सब तरफ से सिमिट-स्मिटार नीचा मुख किये एक पोर खड़ी होगई । असवाय उतारकर हरनानयण ने कहा-"चल भगवती, अब चलें।" भगवती चुपचाप पीछे-पीछे चल दी । स्टेशन से बाहर धाकर उसने कहा-"माई, अब तुम घर नानो । यहाँ से मेरा रास्ता और है, तुम्हारा और ! मेरी ओर से सब मे हाथ जोड़कर इमा माँगना।"
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