२९४ अमर अभिलाषा . हरनारायण कुछ न वोलकर चुपचाप पड़े रहे । कुछ ठहरकर भगवती ने कहा-"अच्छा, एक शर्त पर चलती हूँ। अपने घर वो किसी तरह न जाऊँगी, पर वहाँ चली जाती हूँ। अगर उन्होंने ब्याह करना स्वीकार कर लिया, वो खैर, वरना फिर यहीं श्राकर मरूंगी।" हरनारायण ने रोते-रोते कहा-"अच्छा, यही सही। दोनों तैयार होने लगे। भाई ने कहा-"वहन ! श्राओ, एक वार गङ्गा तो नहा लें !" भगवती ने कुछ विरोध न किया। दोनों स्नान कर स्टेशन चन दिये । देव-दर्शन और भोजन का किसी को स्मरण न रहा, और न इच्छा। पचासवाँ परिच्छेद रेलगाड़ी जा रही थी। पल-पल में भगवती कास्टेशन निकट आ रहा था। भगवती मन-ही-मन सूरज छिपने की प्रार्थना कर रही थी। सूरन छिप रहा था, और अन्धकार फैल रहा था- ऐसे-ही समय में भगवती माई के साथ गाड़ी से उतर पड़ी। अव तक उसके मन में साहस था, विचार था, भय था, और चिन्ता थी। पर स्टेशन पर पैर रखते-ही उसका शरीर सनसनाने लगा । सिर घूमने लगा । यही उसका गाँव है। उसी गाँव में उसका घर-जन्म-स्थान-क्रीडा-क्षेत्र है। अभी उस दिन
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