नपन्यास हरनारायण ने उसका सिर गोद में लेकर कहा-"मरें तुम्हारे दुश्मन ! बहन, नु न ज यगी, तो मैं भी न जाऊँगा। तू मरेगी, तो मैं भी यही मलंगा। मेरे बाद माता, पिता, नरो और तेरी भाभी का नम्बर है। सभी मरेंगे।" भगवती ने धैर्य के स्वर में कहा-"नहीं । तुम सौ-सौ वर्ष जीयो। घर लौर नायो। पर फिसी से मेरी गत न कहना।" "नहीं, तुम्हें बिना लिये न जाऊँगा।" "पर मैं घर न जाऊंगी-किसी रट न पाऊँगी। इसमें कहना व्यर्थ है।" "तब ऐसा करो, तुम गोविन्दसहाय के घर चली लामो।" भगवती ने मुझलाफर कहा-"तो वात एक बार हो चुकी, उसे पयों मार-चार फहते हो?" "तब निश्चय मुझे यहीं रहना है । भगवान् को मरजी।" भगवती और हरनारायण में बड़ा विवाद चला, पर निश्चय कुछ नहीं हुआ । मगवती न माई को विदा कर सकी, न स्वयं जाने को राजी हुई। तीन दिन बीत गये। न गमा-स्नान हुघा, न भोजन, न बात- चीत । दोनों चुपचाप पड़े हैं । अन्त में भगवती ने भाई का हाय प्यार से पकड़कर कहा-"भैया! किरपू और मुखिया कैसे करती होंगी? तुम घर जायो, दुखिया को भरने दो। मैं तुम्हारे पैर पढती हूँ।" इतना कहकर भगवती ने अत्यन्त करुण दृष्टि से भाई को देखा।
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