उपन्याम २९१ 1 निकल गया, और साथ ही सुशों की अविरल धारा यह निकली। अन्त में गद्गद् कण्ठ से उन्होंने कहा-"भगवती ! भब अधिक सोच-विचारी की जरूरत नहीं है। चलो, घर चलें। ममी चलो । जो हुशा, सो हुा ।" भगवती ने उनकी ओर यिना देय-ही कहा-"किसके घर की बात कहते हो ? निसका घर हो, यह नावे, मेरा तो घर थव मैं देंगी । कहीं मिला, तो और, धरना एफ यार भगवान् के घर को टटोलुंगो, फि वहां जगह मिलती है, या नहीं।" हरनारायण ने रोते-रोते कहा-"हम लोग गांव में न जायेंगे। चलो, शहर में घलकर रहेंगे। मुझे नाति-बिरादरी की परवाह नहीं है । तुमने या दुःसपाया है । यहन ! चलो, तुम्हारी भाभी से फा दूंगा, कि वह तुम्ही को मालिक बना दे। यय ज्यादा कुछ कहो-सुनो मत ।" भगपती ने भाई का गद्गद्-पाएट सुनकर एक बार उसकी घोर देखा । फिर वह मी रो उठी। पड़ी देर बाद उसने कहा- "मैं न जाऊँगी, तुम लौट बायो।" "तू न नायगी, तो मैं यही मर जाऊँगा, धय सुझ में अधिक दम नहीं है।" इतना फहफर वे मुंह ढाँपकर रोने लगे। । भगवती चुप पैटरी रही। हरनारायण ने कहा-"चुप क्यों है ? यहाँ अधिक ठहरना ठीक नहीं।" भगवती ने कहा-"भाई, भय लब साफ हो ही गया है,
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