२८२ अमर अभिलाषा भगवती उसमें से "माँ, मैया के लिये रखदे," कहकर भाषी अवश्य हरनारायण के लिये रख देतो । कहाँ तक कहें-बो भाई-बहन हैं, जिनके दीस वर्ष सुख-दुःख में एक साय वीत चुके हैं, उनकी कोई क्या बात कहे ? पर धान वह वात नहीं है। भान दोनों दोनों से मुँह छिपा रहे हैं। अब मावती को 'मैया' कहकर भाई के मुख की ओर देखने का साहस नहीं है । कारण, उसकी आँखों में अब दूध की-सी स्वच्छता नहीं रही । हरनारा- यण 'भग्गो' कहता हुआ जब कभी वहन की ओर देखता है, तब उसकी आँखों से हंसी का नूर नहीं टपकता है; उनमें से मया- नक हलाहल विप, तीव्र अपमान, असह्य वेदना की वर्षा होती है। इसका कारण पाटक समझते हैं। भगवती-गरीय अनाया भगवती-दीन-दुनियाँ, इहलोक-परलोफ सव से पतित होगई है। इस स्वार्थ-मरी दुनियाँ में ग़रीब-निवाज कौन है ? अनाओं का नाथ कौन है ? दीनदयाल कौन है ? पतितपावन कौन है? मनुष्य नहीं है । मनुप्यों में से चे गुण कब के उठ चुके हैं। एक है भगवान् सो अभागिनी को उसी का आसरा है। चाहे कोई भाई हो, या माँ-बन्धु हो, या वाप-उसे कहीं कुछ न मिलेगा। भगवती ने आशा-भरोसा सब त्याग दिया है। पाटक, ऐसी ही दशा में श्रवला भगवती है। जाति, देश और समान यदि सब मिलकर चाहते, तो सम्भव था, वह सुखी हो सकती । पर हिन्दू-समान पत्थर से भी कोर, वधिक से भी निर्दय, और पशु से भी अधिक अज्ञानी है। ये हत्यारे पुरुष,
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