उपन्यास २८१ जयनारायण ने उन्हें रोककर कहा-"जरा ठहरिये ।" इतना कह, वे सोचने लगे। अन्त में यही निश्चय हुथा, कि भगरती को कहीं तीर्थ-स्यान में रहने के लिये भेज दिया जाय । इसके अनन्तर जयनारायण ने सवको विदा कर दिया, क्योंकि अब वे अपने कष्ट को बर्दाश्त नहीं कर सकते थे। अड़तालीसवाँ परिच्छेद सन्ध्या के छः बनकर तीस मिनट पर गाड़ी यनारस के स्टेशन पर पहुंची है। गाड़ी के खड़ी होते ही चढ़ने-उतरनेवाले यात्रियों की धूम-धड़क्कन मच गई है। हम अपने पाठकों का ध्यान दो यात्रियों की ओर आकर्षित करते हैं। इनमें एक स्त्री है, दूसरा पुरुप । दोनों उदास हैं। एक-दसरे से कोई बात नहीं करता है। पाठक इन्हें पहचानते हैं, ये दोनों हरनारायण और भगवती हैं। दोनों सगे भाई-बहिन है । दोनों ने चिरकाल तक एक माता का दूध पिया है-एक-साथ खेले हैं। ये दोनों यद्यपि इस समय अपने बालपने की मधुर स्मृति को भूल गये हैं, पर उनकी माता को उस जमाने की सब बातें याद हैं। वे कहा करती थी, हरनारायण ने कमी मेरी भग्गो को नहीं मारा । भन्गो गुडिया खेलती, तो हरनारायण उसे नई-नई गुढ़िये बना 'दिया करता था। घर में कोई खाने-पीने की वस्तु पाती, तो
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