पृष्ठ:अमर अभिलाषा.djvu/२८०

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२७४ अमर अभिलापा 1 "इसीलिये उसे मेरी जान लेने का, और कोसने का अधिकार है ?" भगवती ने जैसी थविनय और घृणा से ये बातें कही, उससे अत्यन्त रुट होकर नयनारायण बोले-"तुझे हो क्या गया है, येवकूफ, नू क्या ऊट-पटाँग बक रही है?" पिता के क्रोध से तनिक भी विचलित न होकर भगवती ने उसी भाव में कहा-"मैं बिलकुल ठीक ही कहती हूँ। माँ और बाप, सभी मेरी जान के दुश्मन हैं । मैं नित्य देखती हूँ, कि वे नित्य मेरी मृत्यु-कामना करते हैं, मुझे फूटी आँख भी नहीं देख सकते । मैंने भला किया तो, और बुरा किया तो मेरा भाग्य मेरे साथ है। मेरे बदले कोई और तो नक ने जावेगा नहीं, फिर क्यों लोग मुझे कच्चा खाजाने को राजस की तरह बैठे हैं ?" इतना कहकर भगवती ने और भी ज्यालामय नेत्रों से पिता की तरफ देखा। अब की बार जयनारायण के क्रोध में दुःख की छाया दीख पढ़ी। उन्होंने उसी भाव में कहा-"प्रभागिनी सन्तान थपने माता-पिता के हृदयों को नहीं समझ सकती।" इतना कहते- कहते उनकी आँखों से दो बूंद पानी टपक पड़ा। भगवती पर उसका कुछ प्रभाव नहीं हुया । वह उन त्यर में वोली-"पर मैं तो खूब जान गई हूँ ?" "क्या नान गई है?" "कि तुम मुझे मारना चाहते हो।"