उपन्यास २७१ - 1 जयनारायण ने करणा-भरे कम्पित स्वर में धीरज देते हुए प्ला-"हुधा क्या? तबियत तो ठीक है " गृहिणी का मोल न निकला-उसकी जीम तालू से सट गई थी। उसने पानी मांगा। नारायणी थौर उसकी मामी मी वहीं खड़ी थी । नारायणी दौडकर पानी ले पाई, और माता के दान दिया। जयनारायण विपररा भाव से स्त्री का वह भयंकर मुख देस रहे थे। गृहिणीने पेचैनी से उनकी ओर देखते-देखते टूटे-फूटे शब्दों -"मैं मरी नहीं है। मौत भाग गई-माग गई !! मुके कहीं से जहर तो लादो।" इतना कहकर गृहिणी इस प्रकार छटपटाने लगी, मानों हजारों विद्युधों ने एक-साथ उसे डंक में कहा मारा हो। नारायणी रोफर माता से लिपट गई । उसका शरीर प्रमी बहुत दुपन था । उससे माता को धीरज तो बंधाया नहीं गया, स्वयं भी रोने लगी। जयनारायण ने कठिनता से अपने उमदते हुए हृदय को रोककर कहा-"इतनी बड़ी होकर यह बालकों की तरह क्या कर रही हो? शातिर बात क्या है-यह भी तो मालूम हो।" वृद्धा ने एक हाय से नारायणी को दूर हटाते हुए पति की मोर देसी से देखते-देखते कहा- "अब मैं वचंगी नहीं। यह देखो, मेरा प्राण निकता ना हा है!" इवना कहते-कहते वह फिर बेचैनी से खाट पर अपना सिर
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