पृष्ठ:अमर अभिलाषा.djvu/२७६

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पैंतालीसवाँ परिच्छेद वृद्धा गृहिणी उस झोघ, अपमान, घृणा और दुःख के वेग को न सहफर वहीं बैठ गई । ऐसा मालूम होता था कि मानों अभी उसके प्राण निकल जायेंगे। न सो उसकी आँखों में आँसू ही थे, और न वह रो-ही रही थी। उसका दम फूल रहा था, आँखें पथरा रही थी, और चेहरे पर मुर्दनी चा रही थी। उसे ऐसा मालूम होता था, मानों सारा घर घूम रहा है। वह एक दीवार के सहारे बैठे-बैठे येहोश होगई । थोड़ी देर में हरनारायण उधर से निकला । उसने देखा, माता दीवार के सहारे धरती पर पड़ी है। आपककर पास जाकर देखता है तो वह मूञ्चित है, शरीर ठण्डा होगया है, और साँस भी चन्द्र हो रहा है। वह घबरा गया। पहले तो उसने दौड़फर एक खाट खींचकर उस पर माता को डाला, फिर अपनी स्त्री को थुला और वहां बैगर पिता के पास दौड़ा । हरनारायण को घयराये पाते देख, जयनारायण ने खड़े होकर पला-"क्या है ?" "मल्दी चनो-देखो, माँ को क्या हुमा ?" जयनारायण नगदी-जल्दी भीतर भाये । इस बीच में वृद्धा होश में भागई थी, पर पागल की तरह चारों भोर देख रही थी। चेहरे की मुर्दनी भी वैसी ही बनी थी। ,