उपन्यास २६९ - - तेरी जवान सौ गज की होगई है। व्हर, तेरे बाप को भेजती हूँ, साँपिन | तेरा सारा जहर तब उतरेगा।" “भेज दे, अभी भेन दे। याप और भाई, सप मेरे मान के दुश्मन हैं, कसाई है। जो मेरे सामने प्रावेगा, खून पी जाऊँगी, पगढी उतार लुंगी। जिसको हिम्मत हो, घावे, मेरे सामने भावे।" वृद्धा किंकर्तव्य-विमूढ़ होकर भगवती की ओर देखती रह गई। उसकी आँखें पथरा गई । भगवती ने कहककर कहा- "इस तरह मरे वैज्ञ-जैसे दीदे निकाले क्या ताक रही है, क्या मुझे खानायगी ? मैं बदनाम हुई । नाम, मान, हाजत, सुख, सब चला गया। गाँव में मुंह दिखाने को जगह नहीं रही है। अब फसर क्या रही है, जो मै कुछ सोचें -समस् । याद रखो, मेरा तो नाश हुआ ही है, पर तुम्हारा सब का नाश करूँगी। मैं तो डूबती ही हूँ, पर तुम सब को ले यूँ गी! थपने पेट की बेटी को निस तरह कुत्तों की सरह दुरदुराया है, उसी तरह मैं भी भी सब का भून पीऊँगी ! पीऊँगी! पीऊँगी !! मैं अब वह भगवती नहीं हूँ। मुझे रापसी समझना-भला !" इतना कहते-कहते उसके बाल बिखर गये । मुँह में भाग भागये । आँखें निकलने लगी। पापली की तरह भगवठी वहीं से हट गई। 1
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