उपन्यास भय की नयगोपाल की नानी घर में घुसी। यह गम्भीर भाव से गृहिणी फे पार पापर, पैर फैलाकर बैठ गई। गृहिणी ने न कहा सुपचाप अपना काम किये गई। नानी ने महा- सुति से गृहिणी के कान के पास मुफफर कहा-"क्यों री, हरी की नी, बुदापे में तुम्हारी मत भी मारी गई, तुमने भी देख- भाल नही करी गृहिणी ने उसकी और देसफर कहा-"कैसी देख-भान ?" "इस नदी की-गाँव-भर के लोग सन्म में धूक रहे हैं। मुँह दिखाने को जगह नहीं रही।" गृहिणी ने मुंझलाकर कहा-"लोगों को पराये घर की "इतनी फ्रिफर क्यों है? उनके घर में क्या सत्र मर गये हैं जो मेरे घर यप-यफ करने को पाते हैं ?" नानी ने बात सलने के ढंग से कहा-"और क्या? अपनी- अपनी इजत प्रापरू सभी रखते हैं। फोई एफ फहे, तो ऐसी फटफारना, कि याद करे ! सुनके मुझ से वो रहा न गया। कहने को चली थाई । बच्चा अब नाती हूँ।" कहकर नानी जान लेफर भागी। इतने ही में मान घर साफ करने धाई। आते-ही उसने कहा-"भाग लगे इन लुगाइयों को, जैसे कोई काम-ही . गृहिणी ने कुछ न सुना। यह उपचाप दम-मारे यासन मानती रही।
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