२६४ अमर अभिलापा ! . "पया कहने लगी ?" नारायणी चुप रही। पर माता के पिर पूछने पर कहा- "उन्होंने कहा--'जनमुंशी भगो ने पेट गिराया है। गैट यारों से मिल रही है, और माँ-बाप उसकी कमाई नारायणी और कुछ कह रही थी, कि वृद्धा ने घबीर होकर हाथ के पालन पटक दिये, और कडकवर कहा-"यस-प्रस, बके मत ! चुप रह ! ला घर में, लुचीनाँड ! पराये घर की मेंटीनांची चाँव-चाँव एखानती फिरती है, सतस्त्रसमी कहीं की ! पाने दे, रांडों का चोटा पफदफर टपाइ लूंगी।" इतना कहकर वृद्धा कोष से अधीर होफर इधर-उधर टहलने लगी। नारायणी नीचा सिर किये घर में चली गई। इतने-ही में फनधिद की बहू ने यौगन में प्रवेश करते करते कहा-"क्या काफी ! पया यह सच है ?" गृहिणी ने धन ष्टि से उसकी मोर देखते-देखते कहा- "क्यारी उसने और धीरे-से वृद्धा के कान में मुफकर कहा-"यही, नो लुगाई भगवती को नाम धरती फिरती है ?........." कनछिद की बहू पूरी बात कह भी न पाई थी, कि वृद्धा ने दाँत पीसकर कहा-"कुतियां, पराये घर की बहू-बेटियों पर क्यों दाँत विसती फिरती है ? उनके घर में क्या यह बेटियां नहीं है ?" पड़ोसिन ने रग-उन सराव देखकर दबी जवान से कहा- "यह तो मैं भी कहती हूँ।"-और चम्पत हुई ।
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