पृष्ठ:अमर अभिलाषा.djvu/२७

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उपन्यास मेरा इसी बीच में मृत बालफ की विधवा-बालिका ने पाकरः सास से कहा-"चलो, भोजन बनालो-समय होगया है।" गृहिणी ने गुमलाकर कहा-"भाग लगे भोजन में, तो बहुतेरा पेट भर रहा है। प्रभागिनी, तू मेरे सामने से टल जा" इस पर सारी नियों ने अचरल-ले कहा-" ! देखो सोः सही, इसे कुछ भी शोक नहीं। इसका सुहाग फूट गया है,. फिर भी ऐसी फिर रही है। ऐसा तो कहीं देखा-सुना नहीं।" गृहिणी बोली-"यह प्रमागिनी जब से आई है, मेरे घर की सारी श्री उड़ गई। बड़े की नौकरी छूट गई, चोरी हुई और भव मेरा लाल भी चल बसा। यह डायन पाते ही उसे सागई। अब इसे काहे का शोक होगा। मेरा तो सोने का घर मिटी होगया। ७०० का मज़ अलग छाती रखा है। निगोड़े बाप ने छल्ला तक नहीं दिया। मेरा लाल वो खगई, भव' मेरी कावी पर मूंग दलेगी। इस हथिनी को जन्म-भर कहाँ से, खिलागी?" मौसी बोली- हमें वो इसके कुलच्छन तभी दीख गये थे, अव न्याहली माई थी। पर बहन, यह बात क्या कहने की. होती है। कुछ कहती, तो उलटे हमी को कोसती, किहमारी बहू को ऐसा कहती हैं। चपटे पैर के तलुए और भारी कमर जिस लुगाई की होगी, यह कभी तो सुहागन होगी ही नहीं । सालों में इस बात को माजमाकर देख लो। और इसके वो