उपन्यास २५३. "यह न बताउँगी।" "यहाँ कैसे भाई" "बही भादमी उदा साया था।" "मच्छा, खुखासा हानका नामो कैसे-कैसे यहाँ माई।" बसन्ती कुछ देर को चुप हुई। फिर बहकाने लगी- "मेरा घर कहाँ है, यह न बताऊँगी। घर में सास और पति हैं। वह परचूनी की दूकान करता है। यह गोबिन्दसहाय हमारे गाँव में माता-जाता था। मान-शान मी खरीदवा लेता या। मेरे भादमी को पागल कुत्ते ने काट खाया, और वह कसौली के अस्पताल में जाकर मर गया । तब से हम दोनों सास-बहू रहने लगी । गोविन्दसहाय का जाना-माना तो लगा ही रहता था। उसने मुझसे माखें लगाना शुरू किया-पहले तो मैं री-पर एक दिन जब वह भाया, तब मेरी सास कहीं बाहर गई थी। उसने पानी मांगा- मैंने भीतर बुलाकर पिला दिया । बस, इसने हाथ पकड़ लिया। मैंने बहुत नान की; इसने एक न सुनी-- जबर्दस्ती मेरा धर्म विगार दिया, और २) का नोट देकर पक्षा गया। इसके बाद और दो-तीन बार ऐसा हुमा। अन्त में एक दिन हमारे कौन-करार होगये । मैं रात को छत पर पहन पदोस की एक बुड़िया के घर में उतर गई। उससे हमने कुछ बाबच देकर पहले ही बन्दोबस्त कर रखा था। वहाँ मैं ३ दिन भुसकी फोठरी में छिपी रही। वह तीन दिन तक गांव में घूमता रहा जिससे किसी को इस पर शक न हो। अब दोन-धूप बन्द होगई।
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