उपन्यास २५१ "उस पर मुकदमा चलावेंगे।" "उससे क्या होगा?" "मैं उससे पाई-पाई वसूल करूंगी।" युवक मूर्ख और कोई नीच भादमी था। सब बातें तो समझा नहीं, बोन उठा-"अच्छी बात है, सुबह-एक वकील है, मेरे दोस्त, वहाँ तुम्हें ले चलूँगा।" रात-भर दोनों बदनसीव वहीं रहे। सुवह दोनों निकले, और वकील साहब की सुध ली। वकील साहब थे नये रंगरूट- न आगे नाय न पीछे पगहा । न मुवकिल, न मुहरि । एक टूटी- सी मेज, दो तीन-तीन टांग को कुसी, और तीन-चार मैली पुरानी किता। युवक पीछे, और वसन्ती भागे-भागे थी। इस अद्भुत मुवक्षित को देखते ही वकील साहब की बाँछे खिल गई। युवक ने जो पीछे से इशारा किया-उसे समझकर तो फिर वे फूलकर कुप्पा होगये। मुवक्षित को सामने कुसी पर बैठाकर कहा- "कहिये, क्या काम है ?" "एक मुफदमा है।" "कैसा मुकदमा है, बताइये?" "एक बदमाश कल रात मेरे घर में घुसकर, ज़ोर-घल्म से सब-कुछ लूट ले गया।" "! लूट ले गया?" "तुम चिल्लाई नहीं "
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