२५० अमर अभिलाषाः .. भव एक चार ज़ोर से उसे पटककर गोविन्दसहाय उठ खड़ा हुधा । वसन्ती धभी उठे-ही-उठे, कि उसने एक धोती से उसे कसकर बाँध दिया, एक अंगोछा उसके मुंह में इस दिया। इसके बाद वह उस घर की तलाशी लेने लगा। जो हाथ लगा नकदी और कीमती सामान की उसने एक गरी बाँधी। इसके बाद बसन्ती के शरीर के गहने-पाते उतारकर वह लम्बा हुआ । बसन्ती छटपटाती रही, पर उसकी एक न चली। गोविन्दसहाय के लाने के थोड़ी ही देर बाद एक युवक ने घर में प्रवेश किया। यह मुसलमान था। उसने मटपट उसके हाय-पैर खोले, और माजरा पूछा । वसन्ती ने छूटते-हो कहा- "वह खूनी सब लूट ले गया। कुछ भी न छोड़ा।" वह दौड़- दौड़कर घर-भर में घूमने लगी । इसके बाद चिल्लाकर बोली- "हाय ! हाय !! कुछ भी न रहा।" युवक ने कहा-"मैंने तुम से कहा था न, पर तुमने न माना । अगर तुम सारा मान-ताल मेरे सुपुर्द करती, वो ऐसी जगह रख देवा, कि किसी को हाथों-हाथ भी खबर न पड़ती।" "भव क्या करना चाहिये ? क्या उस मूंजी को यों ही छोड़ दिया जायगा?" "माजिर मान तो उसी का था ?" "उसने क्या महसान में दिया था ! शरीर पर पाया था। "फिर क्या करना चाहती हो?"
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