२४८ अमर अमिलापा थी। वह चाहती थी, कि उसकी मोहने की शक्ति जितनी बढ़ सके, अच्छी है। वह जिस मोहल्ले में रहती थी, वहाँ अब उसकी गुजरन सकी। उसे वह घर छोड़कर नीच लोगों के मोहल्ले में एक पर लेना पदा, नहाँ अवाध रूप से उसका पाप-व्यवसाय चलने लगा। गोपी अब दिन-भर उसी के घर पड़ा गालियां और मूले टुकड़े खाया करता । यह एक प्रकार से उसका गुलाम था। अब वह सोनहाने उसी का एजेण्ट था। वह दिन छिपते ही शिकार की तलाश में निकलता, और जहाँ तक बनता, दो-चारों को रोज़ फंसा लाता। इस प्रकार बसन्ती पाप की वैतरणी में गोते लगाने और बहने लगी। गोविन्दसहाय बहुत कम माने बगा था । इधर कुछ दिन से, जब से एक. पार झड़प हो चुकी थी, वह विल्कुल नहीं पाया था । आज बसन्ती अकेली बैठी थी। उसकी तबियत अच्छी न थी। गोपी उसके पास बैग तलुए सहला रहा था। गोविन्दसहाय ने प्रधानक कमरे में प्रवेश किया । वह सामने कुर्सी खींचकर बैठ गया, और कही घष्टि से गोपी की ओर देखने लगा | मामला गहरा देख, बसन्ती ने गोपी को बाहर भेज दिया, और फिर सिंहनी की भांति घर-घूरकर गोविन्दसहाय को देखने लगी।
पृष्ठ:अमर अभिलाषा.djvu/२५४
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।