उपन्यास २३५. "नहीं; मेरे मन में न ईप्यां थी, न कोषामने वही किया- जो करना चाहिये।" "यही काम तो कानून करता।" "कदापि नहीं; कानून फी रू से किसी कुलवती को एल-दक्षा से भ्रष्ट करने की सजा बहुत थोड़ी है।" "तुम कुछ और कहना चाहते हो?" "कर नहीं " इसके बाद अदालत अगले दिन को उठ गई । प्रकाश से परिजनों को मिलने और यात-चीत करने की थाना मिल गई थी। प्रकाश के पिता ने माने यदफर गम्भीरता से कहा--"पुत्र, कुछ भी हो, पर मैं तुम्हारी प्रशंसा करता हूँ।" "पिताजी, माता को सदा-ही थाश्वासन देना। माता ने भाकर पुत्र के मुख पर हाथ फेरा । प्रकाश ने कहा-"अम्मा! सुशीला को तुम साथ ले जाना, और उसे तनिक-भी कष्ट न होने देना।" सुशीला अब भी रो रही थी। प्रकाश देर तक चुपचाप उसे देखते रहे । इस बार उनकी आँखों से मी धांसू बह चले। उन्होंने कहा-"सुशीला, तु मुझे प्रसाठ किया चाहती है, तो माता को उदास न होने देना।" सुशीला प्रकाश के पैर पकड़कर पैठ गई। श्यामाया ने कहा-"प्रकाश, वकील को क्यों न बोलने दिया ?" "पागल ! वकील का इसमें क्या काम या?" "मय क्या होगा?" ,
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