अमर अभिलापा स्वीकार किया, और मैंने उसे मारकर उचित दण्ड दे दिया। इसके बाद अपने को पुलिस के हवाले कर दिया।" कमरे में सला चा रहा था। तिरह में उसने कहा- "सुशीला नेरी धर्म-बहिन है । मैं ईश्वर और संसार के सामने उसका भाई और संरक्षक हूँ। मैं अविवाहित ई, वह विधवा है। मैं विधवा-विवाह का पक्षपाती हूँ। मैं उसके विवाह कर देने की बात लोच ही रहा था। वह मेरी ही नाति की है, पर मैं बात- पांत नहीं मानता । मैंने उसे विवाह करने की इच्छा नीच कर्म समझा। पुरुष को सीनानि की विपत्ति में रक्षा बहिन के नाते ही स्नी उचित है। यही सब से पवित्र नात है। विवाह की भावना त्वार्याय होती है। सुशीला-पन्न पवित्र, सगुण- सम्पर श्रेष्-कुल की पन्या है। उसने मुझे रचेलित नहीं किया। यह खून मैंने उत्तेजित होकर नहीं किया, विचारपूर्वक किया है।" क्षणभर सभी नवा रहे । वन ने पुढा-"क्या कानून को हाय में लेना उत्तम है " "कानून अपूर्ण है।" "फिर भी, यदि प्रत्येक व्यक्ति इस प्रकार की चेष्टा करे, तो क्या सार्वजनिक शान्ति रह सकती है?" "यह प्रश्न औरत का है, और मैं सुली राय रखता हूँ, कि गैरत का प्रश्न मुन-दल पर ही रहना चाहिये।" "क्या तुमने अपराध नहीं किया ?"
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