२२२ अमर अभिलाषा रसिक नहीं है, पर फिर भी उसने साहस नहीं छोरा । वह समय- समय पर उसे जुटकियाँ लेती ही गई। रामनाथ की दोस्ती मि० कालीप्रसाद से थी। इसे दोस्ती न कहकर मुसाहिवी कहें, तो अच्छा है। इसी मुसाहिया की बदौलत उसका नाच-मुनरों, खेल-तमाशों का शौक पूरा हो जाया करता था । काली वाचू बरती के रईस युवफ, सुन्दर, हँसमुख और उन सब गुणों में पूरे थे, जिनसे जम्पटों की शोभा होती है। एक बार बातों-हो-बातों में रामनाथ ने कालीबाबू से मालती का ज़िक्र कर दिया । तब से तो मालती की स्मृति काली- बाबू के दिमाग़ में घर कर गई, और रामनाथ की इजत भी उनकी घष्टि में बढ़ गई । वे बहुधा मिलकर उसे वश में करने के मंसूबे बाँधा करते, और घण्टों मानती के ध्यान में इवे रहते थे। कुछ दिन बाद इन्होंने मालती के नाम पत्र भेजना प्रारम्भ किया, निमकी चर्चा भी मालती ने लता से की; परन्तु और कोई इस 'वान को न जान सका । अव मालती के लिये स्कूल पाना- भी भारी होगया। स्कूल की एक महरी को भी इन पापियों ने गाँउ लिया, और एक दिन जब वह स्कूल से घर लौट रही थी, उसी महरी की सहायता से फुसलाकर उसे उड़ा लिया। उदा- कर उसे कालीवाबू के वाशीचे की कोठी में वन्द कर दिया गया । वहाँ वह ३-४ दिन बन्द रही। उसे वश में लाने के लिये उस पर काफी अत्याचार किये गये, परन्तु मालती ने इस बोरं प्राण खोने का सङ्कल्प कर लिया था। ,
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