उपन्यास २१७ "नहीं भाई; इसका हल न करो, तुम मुझे फाशी पहुंचा सायो । भाई ने गहुत कहा. पर उसने एक न सुनी। विवश भाई फो राजी होना पदा । उसने कहा-"यसी यात है, सा-पीकर रात को गाटी मे चल देंगे।" "रात फी नहीं, मो गाडी प्रयन लारही हो, उमी मे घलना होगा।" "मला विना खाये-पिये......" "मैं धम-जल तो काशी पहुंचकर ही फलंगी।" इतनी देर में भाई को ग्रयाज भाया इससे रात भी फिमी ने भोवन के लिये नहीं पूछा । मम्भवतः या मार्ग-गर भी भूसी हो रही है । न-जाने कय में भूसी ? यह सो पुरा हुमा । उसने फहा-"पुमुद, मुमने कर मे पाया नहीं?" "कुछ इस नहीं, न पाने ने में मलेंगी नहीं। मरना चाहती मी नहीं । मेरे पति का पुत्र मुझे पालना है।" "तय भोजन फर लो।" यह कहकर ये भीतर लपके। परन्तु कुमुद ने वाधा देकर कहा-"मैं का चुफी; मैं थन- अल फाशी पहुंचकर फलंगी।" "तुम माई को फट न दो, स्वयं की परेशान न हो !" "पर यह कैसे सम्भव हो सकता है ?" "इसने फरिन ही क्या है?" भाई-बहन में यह हुन्जत चल ही रही यो, कि उनकी सी
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