उपन्यास २१५ 1 कुमुद का हृदय हिल गया । पर वह बोली नहीं । बच्चे को धरती पर वैगकर वह स्वयं भी बैठ गई । बच्चे ने कहा-"मग्मा, पानी" कुमुद ने इधर-उधर देखा वह स्वयं उठकर घड़े के पास गई। यह देख भावन ने गर्नकर कहा--"यह क्या किया, घड़ा छू लिया। तुम्हें कुछ अच्छे-बुरे का ख़याल भी है ?" उसने उठकर घड़ा फोड़ डाला। पानी सारे घर में फैल . गया। कुमुद ने देखा यहाँ तो एक क्षण भी फटने का ढंग नहीं है। उसने कहा--"भाभी, मुझे माफ करना । दुःख ने मेरी मति हर ली है । मुझे भले-बुरे का ज्ञान नहीं रहा। तुम मुझ दुखिया को समा करना । सिर्फ रात-भर काटकर सुबह मैं चली नाऊँगी।" कुमुद ने वहीं धरती पर अपनी साडी का पल्ला विछाकर बच्चे को सुना दिया, और स्वयं भी जमीन पर ही सोगई। प्रातःकाल हुआ। भाई ने देखा कुमुद सूखकर काँटा हो गई है। उसके फूले हुए गाल पिचक गये हैं, रंग पीला होरहा है, घाँखें गढ़ों में घुस गई हैं। भाई के हृदय में दर्द हुआ। उसने कहा-"कुमुद, यह इतने ही दिन में तुम्हारी यह दशा होगई ?" कुमुद बोली नहीं। एक बूंद प्राँस् उसकी आँख में श्राफर टपक गये । उसने कहा-"भाई, मैं जो अपने दुःख में तुम्हें कष्ट देने भाई, इसके लिये माफ करना । पृथ्वी पर मेरा तुमसे बदकर कोई सगा न था । तुम इतना कष्ट करो, कि मुझे काशी पहुंचा
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