उपन्यास २१३ किया, पर जाप कैसे ? पास पैसा नहीं, और यह कमी अकेली भाई भी न थी, फिर जब घर में इतने शत्रु हैं, सो यार का यहाना क्या है ? पर इस बातावरर में एफ पण भी ठहरना उसके लिये प्रशस्य था। मालठी ने तय यह सुना, तो दौड़ी-दौसी आई, और दोनों लिपटफर खूब रोई। पुमुद्र ने निकल जाने का इरादा प्रफट किया । मालती ने कहा-"नीती, मेरे घर चल रहो। रूसी- सूखी तो हो, सा रहेंगे।" मैंने मां से पर लिया है कुमुद ने कहा-"नहीं मानती, पह समय ऐसा नहीं है, घय तो मुझे मुँह छिपाना-ही सार । तेरे घर जाने में और भी यदनामी है। मेरे साय नू भी पदनाम होगी, पर मेरा एक उप- फार फर । एक टिफिट का प्रन्ध परके मुझे गादी में पिठलवादे, में भाई के पास चली जाऊँगी।" मालती ने वचन दिया। वह चली गई। उसी रात को सय सय घर मो रहा यानुद उठी। चुपचाप बच्चे को छाती से लगाया, और घर से बाहर चल दी। मालती के भाई ने टिकिट लेकर उसे गाड़ी में चढ़ा दिया । प्रभात हुआ। कुमुद नदारद । घर-भर में ढूंद-सोन मच गई । चारों तरफ़ को श्रादमी दोहे । 'हाय-हाय ! नाक कट गई ! हालत विगट गई !' के वाक्य कानों के पर्दे फाद रहे थे। दोपहर दौड़-धूप हुई। इसके याद सब शान्त हो थैठे। सब ने यही तात्पर्य निकाला, कि कुन-कनकनी यार के साय भाग गई । उसके
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