पृष्ठ:अमर अभिलाषा.djvu/२०

यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

२० अमर अभिलाषा की विद्या बुद्धि को ही देखकर लड़की व्याह दी थी-घर-बार कुछ नहीं देखा । पर हाय ! मुझे क्या मालूम थी, कि बुढ़ापे में मुझ पर यह आपत्ति भावेगी! अभी एक साल मी नहीं हुमा, बदी लड़की की चोट सह चुका हूँ, अब फिर चोट पर चोट कैसे सहूँ ?" यह कहकर फूट-फूटकर रोने लगा। इस पर एक पड़ोसी बोले-देखो, फैसी धूम का विवाह हुआ थापान की-सी यात है-अगले श्रापाढ़ में एक वरस होगा। अभागिनी एक वरस भी सुहागिन न रही।" "फेरों की गुनहगार" कहकर जयनारायण छाती कूटका रोने लगे। रमाकान्त ने काँपते स्वर से कहा-"मैं तो हर तरह से लुट गया बावूनी! ७००) रुपये कर्ज किये, विरादरी में नाक रक्खी, धब तक पैसा भी नहीं पटा। मुझे तो माया मिली, न 1 एक पड़ौसी बोला "अब इन बातों में क्या है नो चला गया, वह 'कहाँ से धावेगा! पत्थर की छाती करके सन्तोष करो; लड़की है, इसे ही पालो-अव तो वही बेटा और यही बहू।" .: इस पर सव योल उठे-"हाँ साहब ! अब तो यही पात है।" इसके बाद कुछ देर तक सभाटा रहा । सभी चुपचाप मुंह लटकाये बैठे रहे । कुछ उहरकर जयनारायण रो उठे, बोले- "मेरी दुलारी कैसे रहेगी। उसने कौन सा पाप किया है?" इस पर पुरोहितनी बोले-"जिममान ! उसके भाग्य में सुख